आ जाये बुलावा मुझे आका तेरे दर से
जिस दर की गुलामी को तो जीबरील भी तरसे
पैदल ही निकलते है! मुसाफत का नहीं खौफ
थकते ही नहीं हम तो मदीने के सफर से
सुन्नत पर तेरी चलने का आ जाये करीना
ये अबरे करम काश मेरे दस्त पे बरसे
ज़र्रा भी लगे गोरो अलमास से बढ़ कर
देखे तो कोई खाके अरब मेरी नजर से
एक मै ही नहीं तालिबे जलवा मेरे आका
हर एक मुसलमान तेरे दीद को तरसे
नमूसे मोहम्मद के लिए जान भी दूंगा
हो जाऊंगा वाकिफ मै सहादत के हुनर से
दुनिया के फकत चाँद ही लम्हात थे गुजरे
हो आये पयम बर मेरे सदियों के सफर से
जो शामो शहर सल्ले अला कहता रहेगा
आएगा उसको बुलावा आका के नगर से
कुछ खौफ नहीं मुझको कढी धूप का अमजद
साया मुझे मिलता है! रिसालत के सजर से
Writter :- हसीन मुसीर अहमद कादरी नक्सबंदी भुजपुरा अलीगढ